Contents for debate competition for a
relative..., Can't help but to post it, After a long time something
relevant to my field... :-)
आज इस मंच पर एक ऐसा विषय प्रस्तुत किया गया है जो हर भारतीय से जुड़ा हुआ है. विश्व मे प्रख्यात भारतीय लोकतंत्र क्या एक मृगतृष्णा है. विषय की गहराई मे जाने से पहले हमे जानना होगा लोकतंत्र के बारे मे. लोकतंत्र होता है जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन. परंतु क्या आज के सन्दर्भ मे ये वास्तविकता है ??
आज का नागरिक अपने अधिकारो के प्रति जागरूक नही है. आज भी 50 फीसदी जनता अपने मताधिकार का प्रयोग नही करती है सिर्फ़ यह कहकर की मेरे 1 मत से क्या फ़र्क पड़ेगा. परंतु हर इंसान का यही एक मत मिलकर एक ऐसे इंसान को सरकार मे पहुचने का मौका देता है जिसे जनता की कोई फ़िक्र नही है. वह सिर्फ़ अपनी स्वार्थ की राजनीति मे ही मशगूल रहता है.
सिर्फ़ इतना ही नही आज की जनता अगर मत देती भी है तो लोगो के प्रभाव मे आकर, वो या तो पार्टी का नाम देखकर वोट देते है या फिर अपने रिश्तेदारो को. उन्हे इस बात से कोई मतलब नही है की उम्मीदवार उस पद के लायक है भी या नही. और उन उम्मीदवारो को ही हम संसद मे जूते चप्पल चलाते हुए देख सकते है.
इसके अलावा भारतीय लोकतंत्र की बदक़िस्मती है वंशवाद. आज जागरूक नागरिक या उम्मीदवार कभी आगे नही आ सकता क्यूंकी उसके पास उसके सर पर उसके पूर्वाजो का हाथ नही है. आज किसी भी राष्ट्रीय दल को देख लीजिए, नेता लोग अपनी गद्दी से हटना ही नही चाहते है वो किसी ना किसी माध्यम से सरकार का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ मे रखना चाहते है. चाहे वो राष्ट्र का सर्वोच्च पद ही क्यू ना हो.
दरअसल, भारत के बारे में सबसे बड़ा भ्रम है कि यहां लोकतंत्र है और इस भ्रम को साम्राज्यवादी चिंतन के प्रभाव में रहनेवाली मीडिया भी दिन-रात प्रचारित करती है. आज जनता भयभीत है किसी भी बात का विरोध करने से. यहां विरोध को भी बड़ी आसानी से पचा लिया जाता है. यहा किसी भी मुद्दे पर लोगोको स्टूडियो में बुला कर अपने विचारों को रखने का मौका दिया जाता है, क्योंकि दुनिया को दिखाना है कि देखिए हम कितने लोक तांत्रिक हैं. यहाँ हर विरोध को खूबसूरती से पहले दिखाया जाता है और फिर उसे दुत्कार दिया जाता है. मीडीया को बिग स्टोरीज चाहिए अपने बिजनेस के लिए और बदकिस्मती से लोगों के रोजाना के संघर्षों में उन्हें कुछ भी नया और सनसनीखेज नजर ही नहीं आता. गरीबों के नाम पर जतायी जानेवाली हमदर्दी भी बड़ी खतरनाक होती है और एनजीओ व मिशनरीज इस हमदर्दी जताने की घटिया राजनीति का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं. उनके द्वारा कई बार एम्पावरमेंट शब्द का इस्तेमाल होता है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ बड़े खतरनाक हैं. एम्पावरमेंट के जरिये कमजोर वर्गों को रिप्रजेंट करने का दावा किया जाता है और पैसा कमाया जाता है, जबकि हमें सही अर्थों में लोगों को पावरफुल बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए. प्राइवेट सेक्टर लोगों को खुश रखने के लिए पीपुल्स कार तो बना रहा है, लेकिन लोगों को पीने का पानी और खाना कहां से मिलेगा, इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.
भारतीय लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच जो गहरी खाई है, उससे न स़िर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हुआ है, बल्कि लोगों के गरिमामय जीवन जीने के लिए ज़रूरी अधिकारों मसलन मानवाधिकार का भी हनन हुआ है. यह सिलसिला बदस्तूर जारी है और इसमें सरकारी मशीनरी की संलिप्तता भी कम नहीं है. ह्यूमन राइट्स वाच की वर्ष 2010 की रिपोर्ट भारत में हो रहे मानवाधिकार हनन की असली कहानी बयां करती है. यह रिपोर्ट 2009 के दौरान की गई जांच-पड़ताल और रिसर्च के आधार पर तैयार की गई है.
वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त (मानवाधिकार) नवनीथम पिल्लै ने अपनी भारत यात्रा के दौरान यहां की सरकार को उन नीतियों और क़ानूनों को लागू करने का सुझाव दिया, जो मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं. पिल्लै ने अफसपा (आर्म्ड फोर्सस (स्पेशल पॉवेर्स) एक्ट) जैसे क़ानून को ख़त्म करने की वकालत करते हुए कहा कि ऐसे क़ानून मानवाधिकार के अंतरराष्ट्रीय मानकों के ख़िला़फ हैं. हालांकि भारत की तऱफ से अभी भी इन सुझावों पर अमल होना बाक़ी है.
कॉरपोरेट माफिया का सत्ता एवं शासन के सभी संस्थानों पर नियंत्रण है, चाहे वह राजनीतिज्ञ हों, नौकरशाह हों, पुलिस और एक हद तक न्यायपालिका भी. कॉरपोरेट घराने भयावह तरीके से विशाल हो गए हैं और कानून की अनदेखी करती हैं। वे कानून और नीतियां बनाते हैं और अपने निर्णय लेते हैं, न्यायिक निर्णय भी। अक्सर वे इस बात का भी निर्धारण करते हैं कि मीडिया क्या प्रकाशित करेगा और क्या नहीं।
भारत में पहले राजशाही थी. लोकतंत्र के जामे में सामंतवाद आज भी कायम है . जो उन्होंने सोच लिया वही सही है, जो उनके मुँह से निकल गया वही क़ानून है. वोट लेने के लिए और तथाकथित वोट बैंकों को लुभाने के लिए वे कुछ भी कह-कर सकते हैं. '......यू कांट फूल ऑल द पीपल ऑल द टाइम.' यानी, आप सभी लोगों को हर समय मूर्ख नहीं बना सकते. जितनी जल्दी यह बात भारतीय नेताओं की समझ में आ जाए, उतना ही यह बोध उनके और भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा.
ग्राम्शी ने कहा था कि एक बुर्जुआ लोकतंत्र में पूँजी जनता के सामूहिक विवेक को नियंत्रित करती है. आज भारत सहित सारी दुनिया में यह देखा जा सकता है. इन लोकतंत्रों में सारे निर्णयों और सारी गतिविधियों के केन्द्र में लोक नहीं पूंजीपति हैं. बड़े स्पष्ट तरीके से नीतियाँ इस प्रकार बनाई जा रही हैं कि वे पूंजीपतियों के वर्ग-हितों के अनुरूप हों. इस प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से समाज का बड़ा हिस्सा वंचना का शिकार होकर हासिये पर जा रहा है. किसान, मजदूर और आदिवासी अब सत्ता विमर्श के केन्द्र पर नहीं हैं. एक ऐसा विकास-विमर्श प्रचलित किया जा रहा है जिसमें पूंजीपतियों की समृद्धि को ही विकास का पर्याय बना दिया गया है. यह केन्द्र लगातार संकुचित हो रहा है और हाशिया बढ़ता जा रहा है.
संविधान में कहीं ‘केन्द्र’ शब्द का प्रयोग नहीं है. वहाँ ‘संघीय शासन’ की बात की गयी थी. लेकिन आप देखेंगे कि मीडिया से लेकर सत्ता तक की भाषा में ‘केन्द्र सरकार’ का प्रचलन है. यह सिर्फ भाषा का खिलवाड नहीं. यह उस बदले हुए वैचारिक परिदृश्य को भी दिखाता है जिसमें सभी का प्रतिनिधित्व करने वाली और विभिन्न राष्ट्रीयताओं तथा समाजों के एक संघ की प्रतिनिधि सरकार एक सर्वाधिकारी केन्द्रीय सत्ता में तब्दील हो गयी है. यह सत्ता स्वाभाविक रूप से उन बड़े तथा प्रभावी समुदायों की सत्ता है जिनकी बहुसंख्या इस संख्या आधारित चुनाव प्रणाली को प्रभावित करती है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे प्रदेशों का संघीय राजनीति में जिस तरह से दबदबा है वह इसी कारण से है. और ठीक यही कारण है जिसकी वज़ह से उत्तर पूर्व जैसे हिस्से लगातार उपेक्षा झेल रहे हैं. दिल्ली में होने वाले अन्ना के आंदोलन को तो राष्ट्रीय आंदोलन का दर्ज़ा मिल जाता है लेकिन इरोम शर्मिला का आंदोलन हासिये का आंदोलन बन कर रह जाता है. हालाँकि मैं यहाँ यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि अन्ना के आंदोलन की इतनी भूमिका मैं स्वीकार करता ही हूँ कि उसने लंबे समय बाद मध्य वर्ग के एक हिस्से को आंदोलित किया और उन्हें सड़क पर ले आया. इससे आगे का काम परिवर्तनकारी शक्तियों का है. यही नहीं इन राज्यों और समुदायों के भीतर के तमाम अल्पसंख्यक समाज भी लगातार हासिये पर बने रहते हैं. चूंकि वे संख्या में इतने बड़े नहीं होते कि किसी चुनाव की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकें तो उनकी आवाज़ को भी कोई महत्व नहीं दिया जाता. यह लोकतंत्र की एक बड़ी सीमा है और इसके ‘सबका राज्य’ होने के मिथक पर एक बड़ा सवाल भी खड़ा करता है.
साथ ही मैं भारतीय लोकतंत्र को एक ‘सामंती लोकतंत्र’ भी कहना चाहूँगा. इसमें जाति, धर्म और क्षेत्रीयता जैसी संरंचनाएँ बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. पश्चिमी देशों में जहाँ लोकतंत्र बुर्जुआ प्रकृति का है, वहाँ अपनी सीमाओं के बावजूद मनुष्य की अस्मिता तथा जीवन का सम्मान है. उदाहरण के लिए वहाँ दवा या खाने-पीने के चीजों में मिलावट संभव नहीं. इसके लिए बेहद कड़ी सज़ाएँ हैं, लेकिन भारत में ये अपराध आम हैं. यहाँ का लोकतंत्र अभी मनुष्य की अस्मिता के सम्मान का प्राथमिक गुण भी नहीं सीख पाया है. औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के बाद जिस तरह किसी बड़े और व्यापक आमूलचूल परिवर्तन की जगह सामंती वर्ग ही सत्ता वर्ग में तबदील हुआ, उसमें यह स्वाभाविक था. ऊँची जातियों के पूर्व सामंतों का समाज के भीतर दबदबा रहा. जाति और धर्म की उत्पीडक संरंचनाओं को तोड़ने के कोई गंभीर प्रयास नहीं किये गए. बल्कि पूरी चुनावी प्रक्रिया को जाति/क्षेत्र/धर्म के आधार पर तय किया गया. लोकसभा से लेकर ग्रामसभा तक जातियाँ चुनावी नतीजों और नीतियों के केन्द्र में रहीं और जातिमुक्त समाज का स्वप्न हासिये पर. आरक्षण ने एक धीमी प्रक्रिया के तहत वंचित जातियों से एक हिस्से को मुख्यधारा में लाने में निश्चित रूप से सकारात्मक भूमिका निभाई है लेकिन जाति और धर्म के भारतीय लोकतंत्र से अविभाज्य रिश्ते को वह भी प्रभावित नहीं कर पाया है. ज़ाहिर है कि इस ‘सामंती लोकतंत्र’ में केन्द्र और हासिये का विभाजन प्रभावशाली तथा वंचित जातियों, बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक धर्मों और संपन्न तथा उपेक्षित क्षेत्रों में होता ही है.
इस केन्द्र और हासिये के विभाजन का असर भी शुरू से ही साफ़ दिखाई देने लगा था. कश्मीर, पूर्वोत्तर ही नहीं देश के तमाम हिस्सों सहित लगभग हर राज्य में इस द्वंद्व का प्रतिफलन हिंसक/अहिंसक संघर्षों में हुआ है. सुविधाप्राप्त तथा वंचितों के बीच बढ़ती खाई ने भारत ही नहीं दुनिया भर में एक ऎसी स्थिति बनाई है जिसमें लोगों का गुस्सा साफ़ दिखाई दे रहा है. अरब देशों से लगाए यूरोप और अमेरिका तक में जारी जनता के विरोध प्रदर्शन पूंजीवादी लोकतंत्र की इसी विफलता के स्वाभाविक परिणाम हैं. यहाँ बड़ी भूमिका निभाने में क्रांतिकारी शक्तियों की अक्षमता ही पूंजीवाद को अब तक ज़िंदा रखे है. ऐसा क्यों है, इस पर गंभीर विचार की ज़रूरत है.
यह व्यवस्था बहुत बुरी है। जब यह स्पष्ट हो चुका है कि लोकतंत्र के अधिकांश संस्थान ध्वस्त या निष्क्रिय हो गए हैं, तो ऐसे में सक्रिय लोकतंत्र का भ्रम बनाए रखने का कोई अर्थ नहीं है। हमें देश में सही लोकतंत्र बहाल करने की आवश्यकता है, न कि लोकतंत्र का भ्रम बनाए रखने की।
इन हालत मे कवि की ये पंक्तिया काफ़ी सटीक मालूम होती है:
"आज़ादी हमें मिली थी, जब थी आधी रात.
हुआ सबेरा ही नही, क्या अचरज की बात.
हरा भरा ये मुल्क था, लिए कलियो पर मुस्कान.
किसने कर डाला इसे पतझड़ सा वीरान.
सिसक रही इंसानियत, नाच रहे है नाग.
ज़हरीली फुफ्कार से लगी हर तरफ आग.
दिल छलनी कर क्यो हुआ, यूँ जीना दुश्वार.
कौन वतन के पतन का असली है हकदार."
आज इस मंच पर एक ऐसा विषय प्रस्तुत किया गया है जो हर भारतीय से जुड़ा हुआ है. विश्व मे प्रख्यात भारतीय लोकतंत्र क्या एक मृगतृष्णा है. विषय की गहराई मे जाने से पहले हमे जानना होगा लोकतंत्र के बारे मे. लोकतंत्र होता है जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन. परंतु क्या आज के सन्दर्भ मे ये वास्तविकता है ??
आज का नागरिक अपने अधिकारो के प्रति जागरूक नही है. आज भी 50 फीसदी जनता अपने मताधिकार का प्रयोग नही करती है सिर्फ़ यह कहकर की मेरे 1 मत से क्या फ़र्क पड़ेगा. परंतु हर इंसान का यही एक मत मिलकर एक ऐसे इंसान को सरकार मे पहुचने का मौका देता है जिसे जनता की कोई फ़िक्र नही है. वह सिर्फ़ अपनी स्वार्थ की राजनीति मे ही मशगूल रहता है.
सिर्फ़ इतना ही नही आज की जनता अगर मत देती भी है तो लोगो के प्रभाव मे आकर, वो या तो पार्टी का नाम देखकर वोट देते है या फिर अपने रिश्तेदारो को. उन्हे इस बात से कोई मतलब नही है की उम्मीदवार उस पद के लायक है भी या नही. और उन उम्मीदवारो को ही हम संसद मे जूते चप्पल चलाते हुए देख सकते है.
इसके अलावा भारतीय लोकतंत्र की बदक़िस्मती है वंशवाद. आज जागरूक नागरिक या उम्मीदवार कभी आगे नही आ सकता क्यूंकी उसके पास उसके सर पर उसके पूर्वाजो का हाथ नही है. आज किसी भी राष्ट्रीय दल को देख लीजिए, नेता लोग अपनी गद्दी से हटना ही नही चाहते है वो किसी ना किसी माध्यम से सरकार का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ मे रखना चाहते है. चाहे वो राष्ट्र का सर्वोच्च पद ही क्यू ना हो.
दरअसल, भारत के बारे में सबसे बड़ा भ्रम है कि यहां लोकतंत्र है और इस भ्रम को साम्राज्यवादी चिंतन के प्रभाव में रहनेवाली मीडिया भी दिन-रात प्रचारित करती है. आज जनता भयभीत है किसी भी बात का विरोध करने से. यहां विरोध को भी बड़ी आसानी से पचा लिया जाता है. यहा किसी भी मुद्दे पर लोगोको स्टूडियो में बुला कर अपने विचारों को रखने का मौका दिया जाता है, क्योंकि दुनिया को दिखाना है कि देखिए हम कितने लोक तांत्रिक हैं. यहाँ हर विरोध को खूबसूरती से पहले दिखाया जाता है और फिर उसे दुत्कार दिया जाता है. मीडीया को बिग स्टोरीज चाहिए अपने बिजनेस के लिए और बदकिस्मती से लोगों के रोजाना के संघर्षों में उन्हें कुछ भी नया और सनसनीखेज नजर ही नहीं आता. गरीबों के नाम पर जतायी जानेवाली हमदर्दी भी बड़ी खतरनाक होती है और एनजीओ व मिशनरीज इस हमदर्दी जताने की घटिया राजनीति का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं. उनके द्वारा कई बार एम्पावरमेंट शब्द का इस्तेमाल होता है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ बड़े खतरनाक हैं. एम्पावरमेंट के जरिये कमजोर वर्गों को रिप्रजेंट करने का दावा किया जाता है और पैसा कमाया जाता है, जबकि हमें सही अर्थों में लोगों को पावरफुल बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए. प्राइवेट सेक्टर लोगों को खुश रखने के लिए पीपुल्स कार तो बना रहा है, लेकिन लोगों को पीने का पानी और खाना कहां से मिलेगा, इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.
भारतीय लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच जो गहरी खाई है, उससे न स़िर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हुआ है, बल्कि लोगों के गरिमामय जीवन जीने के लिए ज़रूरी अधिकारों मसलन मानवाधिकार का भी हनन हुआ है. यह सिलसिला बदस्तूर जारी है और इसमें सरकारी मशीनरी की संलिप्तता भी कम नहीं है. ह्यूमन राइट्स वाच की वर्ष 2010 की रिपोर्ट भारत में हो रहे मानवाधिकार हनन की असली कहानी बयां करती है. यह रिपोर्ट 2009 के दौरान की गई जांच-पड़ताल और रिसर्च के आधार पर तैयार की गई है.
वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त (मानवाधिकार) नवनीथम पिल्लै ने अपनी भारत यात्रा के दौरान यहां की सरकार को उन नीतियों और क़ानूनों को लागू करने का सुझाव दिया, जो मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं. पिल्लै ने अफसपा (आर्म्ड फोर्सस (स्पेशल पॉवेर्स) एक्ट) जैसे क़ानून को ख़त्म करने की वकालत करते हुए कहा कि ऐसे क़ानून मानवाधिकार के अंतरराष्ट्रीय मानकों के ख़िला़फ हैं. हालांकि भारत की तऱफ से अभी भी इन सुझावों पर अमल होना बाक़ी है.
कॉरपोरेट माफिया का सत्ता एवं शासन के सभी संस्थानों पर नियंत्रण है, चाहे वह राजनीतिज्ञ हों, नौकरशाह हों, पुलिस और एक हद तक न्यायपालिका भी. कॉरपोरेट घराने भयावह तरीके से विशाल हो गए हैं और कानून की अनदेखी करती हैं। वे कानून और नीतियां बनाते हैं और अपने निर्णय लेते हैं, न्यायिक निर्णय भी। अक्सर वे इस बात का भी निर्धारण करते हैं कि मीडिया क्या प्रकाशित करेगा और क्या नहीं।
भारत में पहले राजशाही थी. लोकतंत्र के जामे में सामंतवाद आज भी कायम है . जो उन्होंने सोच लिया वही सही है, जो उनके मुँह से निकल गया वही क़ानून है. वोट लेने के लिए और तथाकथित वोट बैंकों को लुभाने के लिए वे कुछ भी कह-कर सकते हैं. '......यू कांट फूल ऑल द पीपल ऑल द टाइम.' यानी, आप सभी लोगों को हर समय मूर्ख नहीं बना सकते. जितनी जल्दी यह बात भारतीय नेताओं की समझ में आ जाए, उतना ही यह बोध उनके और भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा.
ग्राम्शी ने कहा था कि एक बुर्जुआ लोकतंत्र में पूँजी जनता के सामूहिक विवेक को नियंत्रित करती है. आज भारत सहित सारी दुनिया में यह देखा जा सकता है. इन लोकतंत्रों में सारे निर्णयों और सारी गतिविधियों के केन्द्र में लोक नहीं पूंजीपति हैं. बड़े स्पष्ट तरीके से नीतियाँ इस प्रकार बनाई जा रही हैं कि वे पूंजीपतियों के वर्ग-हितों के अनुरूप हों. इस प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से समाज का बड़ा हिस्सा वंचना का शिकार होकर हासिये पर जा रहा है. किसान, मजदूर और आदिवासी अब सत्ता विमर्श के केन्द्र पर नहीं हैं. एक ऐसा विकास-विमर्श प्रचलित किया जा रहा है जिसमें पूंजीपतियों की समृद्धि को ही विकास का पर्याय बना दिया गया है. यह केन्द्र लगातार संकुचित हो रहा है और हाशिया बढ़ता जा रहा है.
संविधान में कहीं ‘केन्द्र’ शब्द का प्रयोग नहीं है. वहाँ ‘संघीय शासन’ की बात की गयी थी. लेकिन आप देखेंगे कि मीडिया से लेकर सत्ता तक की भाषा में ‘केन्द्र सरकार’ का प्रचलन है. यह सिर्फ भाषा का खिलवाड नहीं. यह उस बदले हुए वैचारिक परिदृश्य को भी दिखाता है जिसमें सभी का प्रतिनिधित्व करने वाली और विभिन्न राष्ट्रीयताओं तथा समाजों के एक संघ की प्रतिनिधि सरकार एक सर्वाधिकारी केन्द्रीय सत्ता में तब्दील हो गयी है. यह सत्ता स्वाभाविक रूप से उन बड़े तथा प्रभावी समुदायों की सत्ता है जिनकी बहुसंख्या इस संख्या आधारित चुनाव प्रणाली को प्रभावित करती है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे प्रदेशों का संघीय राजनीति में जिस तरह से दबदबा है वह इसी कारण से है. और ठीक यही कारण है जिसकी वज़ह से उत्तर पूर्व जैसे हिस्से लगातार उपेक्षा झेल रहे हैं. दिल्ली में होने वाले अन्ना के आंदोलन को तो राष्ट्रीय आंदोलन का दर्ज़ा मिल जाता है लेकिन इरोम शर्मिला का आंदोलन हासिये का आंदोलन बन कर रह जाता है. हालाँकि मैं यहाँ यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि अन्ना के आंदोलन की इतनी भूमिका मैं स्वीकार करता ही हूँ कि उसने लंबे समय बाद मध्य वर्ग के एक हिस्से को आंदोलित किया और उन्हें सड़क पर ले आया. इससे आगे का काम परिवर्तनकारी शक्तियों का है. यही नहीं इन राज्यों और समुदायों के भीतर के तमाम अल्पसंख्यक समाज भी लगातार हासिये पर बने रहते हैं. चूंकि वे संख्या में इतने बड़े नहीं होते कि किसी चुनाव की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकें तो उनकी आवाज़ को भी कोई महत्व नहीं दिया जाता. यह लोकतंत्र की एक बड़ी सीमा है और इसके ‘सबका राज्य’ होने के मिथक पर एक बड़ा सवाल भी खड़ा करता है.
साथ ही मैं भारतीय लोकतंत्र को एक ‘सामंती लोकतंत्र’ भी कहना चाहूँगा. इसमें जाति, धर्म और क्षेत्रीयता जैसी संरंचनाएँ बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. पश्चिमी देशों में जहाँ लोकतंत्र बुर्जुआ प्रकृति का है, वहाँ अपनी सीमाओं के बावजूद मनुष्य की अस्मिता तथा जीवन का सम्मान है. उदाहरण के लिए वहाँ दवा या खाने-पीने के चीजों में मिलावट संभव नहीं. इसके लिए बेहद कड़ी सज़ाएँ हैं, लेकिन भारत में ये अपराध आम हैं. यहाँ का लोकतंत्र अभी मनुष्य की अस्मिता के सम्मान का प्राथमिक गुण भी नहीं सीख पाया है. औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के बाद जिस तरह किसी बड़े और व्यापक आमूलचूल परिवर्तन की जगह सामंती वर्ग ही सत्ता वर्ग में तबदील हुआ, उसमें यह स्वाभाविक था. ऊँची जातियों के पूर्व सामंतों का समाज के भीतर दबदबा रहा. जाति और धर्म की उत्पीडक संरंचनाओं को तोड़ने के कोई गंभीर प्रयास नहीं किये गए. बल्कि पूरी चुनावी प्रक्रिया को जाति/क्षेत्र/धर्म के आधार पर तय किया गया. लोकसभा से लेकर ग्रामसभा तक जातियाँ चुनावी नतीजों और नीतियों के केन्द्र में रहीं और जातिमुक्त समाज का स्वप्न हासिये पर. आरक्षण ने एक धीमी प्रक्रिया के तहत वंचित जातियों से एक हिस्से को मुख्यधारा में लाने में निश्चित रूप से सकारात्मक भूमिका निभाई है लेकिन जाति और धर्म के भारतीय लोकतंत्र से अविभाज्य रिश्ते को वह भी प्रभावित नहीं कर पाया है. ज़ाहिर है कि इस ‘सामंती लोकतंत्र’ में केन्द्र और हासिये का विभाजन प्रभावशाली तथा वंचित जातियों, बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक धर्मों और संपन्न तथा उपेक्षित क्षेत्रों में होता ही है.
इस केन्द्र और हासिये के विभाजन का असर भी शुरू से ही साफ़ दिखाई देने लगा था. कश्मीर, पूर्वोत्तर ही नहीं देश के तमाम हिस्सों सहित लगभग हर राज्य में इस द्वंद्व का प्रतिफलन हिंसक/अहिंसक संघर्षों में हुआ है. सुविधाप्राप्त तथा वंचितों के बीच बढ़ती खाई ने भारत ही नहीं दुनिया भर में एक ऎसी स्थिति बनाई है जिसमें लोगों का गुस्सा साफ़ दिखाई दे रहा है. अरब देशों से लगाए यूरोप और अमेरिका तक में जारी जनता के विरोध प्रदर्शन पूंजीवादी लोकतंत्र की इसी विफलता के स्वाभाविक परिणाम हैं. यहाँ बड़ी भूमिका निभाने में क्रांतिकारी शक्तियों की अक्षमता ही पूंजीवाद को अब तक ज़िंदा रखे है. ऐसा क्यों है, इस पर गंभीर विचार की ज़रूरत है.
यह व्यवस्था बहुत बुरी है। जब यह स्पष्ट हो चुका है कि लोकतंत्र के अधिकांश संस्थान ध्वस्त या निष्क्रिय हो गए हैं, तो ऐसे में सक्रिय लोकतंत्र का भ्रम बनाए रखने का कोई अर्थ नहीं है। हमें देश में सही लोकतंत्र बहाल करने की आवश्यकता है, न कि लोकतंत्र का भ्रम बनाए रखने की।
इन हालत मे कवि की ये पंक्तिया काफ़ी सटीक मालूम होती है:
"आज़ादी हमें मिली थी, जब थी आधी रात.
हुआ सबेरा ही नही, क्या अचरज की बात.
हरा भरा ये मुल्क था, लिए कलियो पर मुस्कान.
किसने कर डाला इसे पतझड़ सा वीरान.
सिसक रही इंसानियत, नाच रहे है नाग.
ज़हरीली फुफ्कार से लगी हर तरफ आग.
दिल छलनी कर क्यो हुआ, यूँ जीना दुश्वार.
कौन वतन के पतन का असली है हकदार."
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