कभी समझो तुम कुछ नही..
और करता रहूँ मैं बाते अथाह...
कभी ना कहूँ मैं कुछ...
फिर भी चाहो तुम समझना...
हर पल करो कोशिश जानने की ...
और पाओ खुदको उसी उलझन मे उलझा...
कभी लगे तुम जानो सब कुछ...
जैसे तुम हो खुदा...
और कभी तुम ना करो
बिल्कुल भी मेरी परवाह...
बैचैन होकर तुम कहो मुझे पागल
और दूँ मैं बस मुस्कुरा...
कभी मैं कहूँ तुमसे बहुत कुछ...
ना जानू खुद उसका फलसफा...
पर हर उस बात में जो मैं लिखूं..
है मेरे मन की अवस्था...
और हर वो बात जो मैं कहूँ...
वो है मेरे मन की व्यथा...
तुम जानना चाहो उसे...
पर देख ना पाओ वो पूरा जलसा...
तुम देखो मेरे वो छिन्न भिन्न स्वरूप..
और पाओ खुद को ठगा हुआ...
बैचैन होकर तुम कहो मुझे पागल
और दूँ मैं बस मुस्कुरा...
कभी ना दूँ मैं तुम्हारे सवाल का जवाब...
और कभी करूँ तुम्हे गुमराह...
हैरान से तुम सोचो...
कैसा है ये इनसाँ...
कभी लगूँ मैं श्रांत पथिक...
कभी लगूँ मैं उत्सुक इंसान..
कभी लगूँ मैं संतुष्ट प्राणी...
कभी लगूँ मैं जिद्दी शैतान...
कभी लगूँ मैं एकदम परिपक्व...
कभी लगूँ मैं बिल्कुल नादान...
न तुम जानो कैसे समझो मुझे...
और स्वीकारो अपनी विफलता...
बैचैन होकर तुम कहो मुझे पागल
और दूँ मैं बस मुस्कुरा...
ख़त्म होगा ये खेल तब...
जब शायद मैं थक जाऊँ...
या ख़त्म होगा ये तब...
जब शायद तुम चले जाओ...
तब तक हर साँस मे...
मुझे पाओगे तुम...
हर कहे लफ़्ज मे ...
अपना एहसास पाओगे तुम...
जानते हो की ये पहेली...
रहेगी अब उनसुलझी सदा...
फिर क्यों तलाश कर रहे...
हम अपनी ज़िंदगी का फलसफा...
बैचैन होकर तुम कहो मुझे पागल
और दूँ मैं बस मुस्कुरा...
और करता रहूँ मैं बाते अथाह...
कभी ना कहूँ मैं कुछ...
फिर भी चाहो तुम समझना...
हर पल करो कोशिश जानने की ...
और पाओ खुदको उसी उलझन मे उलझा...
कभी लगे तुम जानो सब कुछ...
जैसे तुम हो खुदा...
और कभी तुम ना करो
बिल्कुल भी मेरी परवाह...
बैचैन होकर तुम कहो मुझे पागल
और दूँ मैं बस मुस्कुरा...
कभी मैं कहूँ तुमसे बहुत कुछ...
ना जानू खुद उसका फलसफा...
पर हर उस बात में जो मैं लिखूं..
है मेरे मन की अवस्था...
और हर वो बात जो मैं कहूँ...
वो है मेरे मन की व्यथा...
तुम जानना चाहो उसे...
पर देख ना पाओ वो पूरा जलसा...
तुम देखो मेरे वो छिन्न भिन्न स्वरूप..
और पाओ खुद को ठगा हुआ...
बैचैन होकर तुम कहो मुझे पागल
और दूँ मैं बस मुस्कुरा...
कभी ना दूँ मैं तुम्हारे सवाल का जवाब...
और कभी करूँ तुम्हे गुमराह...
हैरान से तुम सोचो...
कैसा है ये इनसाँ...
कभी लगूँ मैं श्रांत पथिक...
कभी लगूँ मैं उत्सुक इंसान..
कभी लगूँ मैं संतुष्ट प्राणी...
कभी लगूँ मैं जिद्दी शैतान...
कभी लगूँ मैं एकदम परिपक्व...
कभी लगूँ मैं बिल्कुल नादान...
न तुम जानो कैसे समझो मुझे...
और स्वीकारो अपनी विफलता...
बैचैन होकर तुम कहो मुझे पागल
और दूँ मैं बस मुस्कुरा...
ख़त्म होगा ये खेल तब...
जब शायद मैं थक जाऊँ...
या ख़त्म होगा ये तब...
जब शायद तुम चले जाओ...
तब तक हर साँस मे...
मुझे पाओगे तुम...
हर कहे लफ़्ज मे ...
अपना एहसास पाओगे तुम...
जानते हो की ये पहेली...
रहेगी अब उनसुलझी सदा...
फिर क्यों तलाश कर रहे...
हम अपनी ज़िंदगी का फलसफा...
बैचैन होकर तुम कहो मुझे पागल
और दूँ मैं बस मुस्कुरा...
द्वारा - सौरभ बजाज
3 comments:
Gr8 Poem.
wah wah ...aur du main bas muskuraa..
Kahin kahin kamjor kadiyaan hain...
still the meaning is beautiful...
issi baat par ab do tum bas muskuraa..
Thanks Mithil and Shreyans.. :-)
@ SHM:
हा यार कुछ कमजोर कड़िया तो है ;-)
पर
कभी लगूँ मैं एकदम परिपक्व...
कभी लगूँ मैं बिल्कुल नादान...
इसलिए सिर्फ़ रहा हूँ मैं मुस्कुरा :-)
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