courtesy - puneet gupta Paradox’s Weblog
बढते कदमो ने पूछा है मुझसे
आख़िर तुझे जाना कहाँ है
मुड़ती राहों ने पूछा है मुझसे
आख़िर तेरा ठिकाना कहाँ है
उड़ते सपनो ने पूछा है मुझसे
आख़िर तेरा आशियाना कहाँ है
लहराती उम्मीदों ने पूछा है मुझसे
आख़िर तेरा किनारा कहाँ है
कभी-कभी रुक कर सोचने लगता हूँ
रास्ते के हर मोड़ पर मंजिल का निशाँ ढूँढने लगता हूँ
क्या खोया है मैंने जिसको तलाशता आया हूँ
कौनसी डोर है ऐसी जिसके सहारे संभलता आया हूँ
आख़िर क्यूँ ये सफर, नही खत्म होता कभी
आख़िर क्यूँ हर राह से, नयी राह जुड़ जाती है कहीं
क्यूँ ये राहें संकरी हो जाती हैं
जब अपनो को छोड़ना पड़ता है
बस ख़ुद के लिए जगह रह जाती है
क्यूँ इस भूल भुलैया में हम
ख़ुद को भी भूल जाते हैं
जब चलना ही जीवन हो जाता है
रस्ते ही संसार बन जाते हैं
जब चलते चलते थक जायेंगे आगे
जब साथ होंगे बस अपने साए के सहारे
सोचेंगे शायद , तब हम कुछ ऐसे
काश कभी रुकके तसल्ली से बैठे होते
बैठ के अपनो से कुछ बातें की होतीं
भागती ज़िन्दगी को हांफती साँसों को
फुर्सत के चंद लम्हे दिए होते
1 comment:
सुन्दर कविता है।
हिन्दी में और भी लिखिये।
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