Friday, December 26, 2008

चंद लम्हे...

This is not written by me, but impressed me a lot as somewhere it expresses my thoughts as well...
courtesy - puneet gupta Paradox’s Weblog

बढते कदमो ने पूछा है मुझसे
आख़िर तुझे जाना कहाँ है
मुड़ती राहों ने पूछा है मुझसे
आख़िर तेरा ठिकाना कहाँ है

उड़ते सपनो ने पूछा है मुझसे
आख़िर तेरा आशियाना कहाँ है
लहराती उम्मीदों ने पूछा है मुझसे
आख़िर तेरा किनारा कहाँ है

कभी-कभी रुक कर सोचने लगता हूँ
रास्ते के हर मोड़ पर मंजिल का निशाँ ढूँढने लगता हूँ
क्या खोया है मैंने जिसको तलाशता आया हूँ
कौनसी डोर है ऐसी जिसके सहारे संभलता आया हूँ

आख़िर क्यूँ ये सफर, नही खत्म होता कभी
आख़िर क्यूँ हर राह से, नयी राह जुड़ जाती है कहीं

क्यूँ ये राहें संकरी हो जाती हैं
जब अपनो को छोड़ना पड़ता है
बस ख़ुद के लिए जगह रह जाती है

क्यूँ इस भूल भुलैया में हम
ख़ुद को भी भूल जाते हैं
जब चलना ही जीवन हो जाता है
रस्ते ही संसार बन जाते हैं

जब चलते चलते थक जायेंगे आगे
जब साथ होंगे बस अपने साए के सहारे
सोचेंगे शायद , तब हम कुछ ऐसे
काश कभी रुकके तसल्ली से बैठे होते
बैठ के अपनो से कुछ बातें की होतीं
भागती ज़िन्दगी को हांफती साँसों को
फुर्सत के चंद लम्हे दिए होते

1 comment:

उन्मुक्त said...

सुन्दर कविता है।

हिन्दी में और भी लिखिये।